कृषि विभाग द्वारा जिले के कृषकों को सलाह दी गई है कि गेहूँ काटने के बाद बचे हुये अवशेष (खापा/डूढ़/डंठल) जलाना खेती के लिये आत्मघाती कदम सिद्व हो सकता है।
इससे अन्य खेतों में अग्नि दुर्घटना की संभावना रहती है किन्तु मिट्टी की उर्वरकता पर भी विपरीत असर पड़ता है। इसके साथ ही धुएँ से कार्बन डाय-आक्साइड से तापक्रम बढता है ओर प्रदूषण वृद्धि भी होती है।
कृषि विभाग ने किसानों से अपील की है कि वे किसी भी स्थिति में नरवाई न जलायें। उर्वरक परत लगभग 6 इंच की उपरी सतह पर ही होती है, इसमें तरह-तरह जीवाणु उपस्थित रहते है। जो खेती को कई तरीके से लाभ पहुचाते है,नरवाई जलाने से उत्पन्न उच्च तापमान में उपजाऊ मिट्टी की दशा ईट बनाने की प्रकिया की तरह कड़ी और जीवाणु रहित होती जाती है। जो धीरे-धीरे बंजरता की ओर बढने लगती है। नरवाई जलाने की अप्रेक्षा यदि फसल अवशेषों और ड़ठलो को एकत्र कर जैविक खाद जैसे भू-नाडेप, वर्मी कम्पोस्ट आदि बनाने में उपयोग किया जाये तो यह बहुत जल्दी सड़कर पोषक तत्वों से भरपूर खाद बना सकते है। इसके अतिरिक्त खेत में कल्टीवेटर, रोटावेटर या डिस्क हेरो की सहायता से फसल अवशेषों को भूमि में मिलाने से आने वाली फसलों में जीवांश के रूप में बचत की जा सकती है। इस हेतु किसान हलधर योजना का लाभ लेकर गहरी जुताई भी कर सकते है। किसान सामान्य हार्वेस्टर से गेहूँ कटवाने के स्थान पर स्ट्रारीपर एवं हार्वेस्टर का उपयोग करे तो पशुओं के लिये भूसा व खेत के लिये बहुमूल्य पौषक तत्वों की उपलब्धता बढने के साथ मिट्टी की संरचना को बिगडने से भी बचाया जा सकता है। दूसरी और नरवाई जलाने से अपनी या अन्य किसानों की फसल, घर, मवेशी आदि को भी नुकसान पहुँच सकता है।