भारतीय संस्कृति में पर्यावरण को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। वृक्ष, नदियाँ और पशु-पक्षी भारतीय संस्कृति में आराध्य हैं। पुराणों में अलग-अलग प्रजाति के वृक्षों का अलग-अलग महात्म्य बताया गया है। शायद यही कारण है कि पश्चिमी सभ्यता का अल्प समय अनुकरण के बाद हमारी संस्कृति पुन: अपने वैभव की ओर लौट रही है।
वराह पुराण (12.2.39) में कहा गया है कि एक पीपल, एक नीम, एक बरगद, 10 फूल प्रजाति के वृक्ष, 2 अनार, 2 संतरे और 5 आम के वृक्ष रोपने वाले व्यक्ति कभी नर्क में नहीं जाते। अगर हम इस फार्मूले पर सतत चल रहे होते, तो शायद आज हमें पर्यावरण की चिंता नहीं करनी पड़ती और स्वास्थ्यवर्द्धक फलों की प्रचुरता रहती।
महाभारत के अनु. पर्व 58/30 के अनुसार किन्नर, नाग, राक्षस, देवता, गंधर्व, मनुष्य और ऋषियों के समुदाय वृक्षों का आश्रय लेते हैं। हम स्वयं भी देखते हैं कि वृक्ष पक्षी समुदाय को कितनी बड़ी सुरक्षा और सुविधा देते हैं। महाभारत के इसी पर्व में कहा गया है कि जो वृक्षों का दान करते हैं, उनको वे वृक्ष पुत्र की भाँति परलोक में तारते हैं। फलते-फूलते वृक्ष इस लोक में मनुष्यों और पशु-पक्षियों को तृप्त करते हैं।
महाभारत वैष्णव धर्म पर्व अध्याय-19 में कृष्ण भगवान ने कहा है कि राजन मैं ही पीपल के वृक्ष के रूप में रहकर तीनों लोकों का पालन करता हूँ। जहाँ पीपल का वृक्ष नहीं, वहाँ मेरा वास नहीं है।
विक्रम चरितम-65 में कहा गया है कि वृक्ष तो सज्जनों की भाँति परोपकारी होते हैं। वृक्ष स्वयं धूप में खड़े रहकर भी दूसरों को छाया देते हैं। इनके फल भी दूसरों के उपयोग के लिये होते हैं। इस प्रकार वृक्ष नि:स्वार्थ भाव का उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
बिल्वाष्टक के अंतिम श्लोक में कहा गया है कि बिल्व पत्र का मूल भाग ब्रह्मा का, मध्य भाग विष्णु का और अग्र भाग शिव का स्वरूप है। इसे शिव पर अर्पण करने से बहुत पुण्य मिलता है।